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फ्रॉक वाली हिन्दी मास्टरनी : दुर्गाबाई देशमुख

फ्रॉक वाली हिन्दी मास्टरनी : दुर्गाबाई देशमुख

July 17, 2020 Posted by Blind Relief Admin Blog, Events

– प्रो. अमरनाथ

अपने माता पिता के सामाजिक कार्यों तथा गाँधी जी से प्रभावित होकर दुर्गाबाई ने 10 वर्ष की आयु में ही काकीनाडा ( आंध्र प्रदेश ) में महिलाओं के लिए हिंदी पाठशाला की स्थापना की। उन्होंने बहुत कम उम्र में गांधीजी के आदर्शों का पालन करना शुरू कर दिया। उन्होंने खादी पहनी और अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों का बहिष्कार किया।

दुर्गाबाई ने अपनी माँ सहित 500 से अधिक महिलाओं को हिंदी पढाने के साथ- साथ उन्हें स्वयं सेविका के रूप में तैयार करने का भी महत्वपूर्ण कार्य किया। कहा जाता है कि उस समय फ्रॉक पहने हुए इस नन्ही मास्टरनी को देखकर गाँधी जी के सहयोगी जमनालाल बजाज हक्के बक्के रह गये थे। महात्मा गांधी ने कस्तूरबा गांधी और सी.ऍफ़.एंड्रूज के साथ जब दुर्गाबाई की इस पाठशाला का निरीक्षण किया तब दुर्गाबाई की आयु केवल 12 वर्ष थी।

आजादी के आन्दोलन के दौरान और उसके बाद समूचे दक्षिण भारत में महिलाओं के कल्याण तथा शैक्षिक संस्थानों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण संगठन आंध्र महिला सभा की संस्थापक दुर्गाबाई देशमुख ( जन्म-15.7.1909) भारत की महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थीं। विश्वविद्यालय महिला संघ, नारी निकेतन आदि अनेक संस्थाओं के माध्यम से उन्होंने महिलाओं के उत्थान के लिए अथक प्रयास किए। योजना आयोग द्वारा प्रकाशित ‘भारत में समाज सेवा का विश्वकोश’ उन्हीं के निर्देशन में तैयार हुआ। उन्होंने अनेक विद्यालय, चिकित्सालय, नर्सिंग विद्यालय तथा तकनीकी विद्यालय स्थापित किए। उन्होंने नेत्रहीनों के लिए भी विद्यालय, छात्रावास तथा तकनीकी प्रशिक्षण केन्द्र खोले।

ऐसी असाधारण महिला दुर्गाबाई देशमुख का जन्म आंध्र प्रदेश के राजमुंदरी जिले के काकीनाडा नामक कस्बे में एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। दुर्गाबाई के पिता बी.वी.एन. रामाराव भी एक जागरूक समाजसेवी थे किन्तु अपने समय की परंपरा के अनुसार उन्होंने केवल आठ साल की उम्र में ही अपनी बेटी का विवाह एक जमींदार के दत्तक पुत्र सुब्बा राव से कर दिया। जब दुर्गाबाई पंद्रह साल की हुईं तब उन्हें विवाह का अर्थ समझ में आया और उन्होंने शादी के बंधन को तोड़ने और खुद को “सार्वजनिक जीवन” में व्यस्त करने का फैसला कर लिया। उन्होंने अपने पति को समझाने की कोशिश की कि वे उनके लिए उपयुक्त पत्नी नहीं बन सकेंगी।

बचपन में ही दुर्गाबाई महात्मा गांधी के सम्पर्क में आ गईं। गांधी जी से मिलने की कहानी भी दिलचस्प है। उस समय असहयोग आंदोलन पूरे देश में जोर-शोर से चल रहा था। महात्मा गांधी पूरे भारत में घूम-घूमकर लोगों को संबोधित कर रहे थे। 2 अप्रैल, 1921 को महात्मा गांधी आंध्र प्रदेश के काकीनाड़ा में एक सभा करनेवाले थे। मुख्य कार्यक्रम वहां के टाउन हॉल में आयोजित होने वाला था। जब इस बारे में दुर्गाबाई को पता चला जो उस समय वहां के एक बालिका विद्यालय की 12 साल की छात्रा थी, तो उन्होंने तय किया कि वह वहां की प्रचलित देवदासी प्रथा की शिकार महिलाओं को तथा बुर्का कुप्रथा की शिकार मुस्लिम महिलाओं को भी गांधीजी से मिलवाएंगी। वह चाहती थी गांधीजी इन महिलाओं को कुछ ऐसा संदेश दें जिससे ये इन कुप्रथाओं से उबर सकें।

किन्तु गाँधी जी से मिलना आसान नहीं था। उनके पास बहुत कम समय होता था और स्थानीय आयोजक अपने कार्यक्रम को लेकर बहुत व्यस्त थे, इसलिए आयोजकों ने टालने के लिए उस छोटी सी लड़की से कह दिया कि यदि उसने गांधीजी को देने के लिए पांच हजार रुपये का चंदा (उस समय यह बहुत बड़ी राशि थी ) इकट्ठा कर लिया तो गांधीजी का दस मिनट का समय उन महिलाओं के लिए मिल जाएगा। आयोजकों ने हंसी-हंसी में सोचा होगा कि यह बच्ची भला पांच हजार रुपये कैसे इकट्ठा कर पाएगी। इसके बाद दुर्गाबाई अपनी देवदासी सहेलियों से जाकर मिली और इस शर्त के बारे में बताया। देवदासियों ने कहा कि रुपयों का इंतजाम तो हो जाएगा लेकिन वह रोज आकर उनसे मिले और उन्हें गांधीजी के देश के प्रति योगदान के बारे में बताए। कहा जाता है कि एक सप्ताह के भीतर ही रुपयों का इंतजाम हो गया।

अब समस्या थी कि गांधीजी से मिलने का यह कार्यक्रम किस जगह पर रखा जाए। देवदासियां और बुर्कानशीं महिलाएं आम सभा में जाने से हिचक रही थीं। स्थानीय आयोजकों ने कोई मदद नहीं की। इसलिए दुर्गाबाई ने उन्हें रुपये देने से इनकार कर दिया और खुद ही कार्यक्रम के लिए उपयुक्त जगह की तलाश में जुट गई। वह अपने स्कूल के हेडमास्टर शिवैया शास्त्री के पास गई और अनुरोध किया कि स्कूल के ही विशाल मैदान में कार्यक्रम आयोजित करने की अनुमति दी जाए। उन्होंने अनुमति दे दी। स्थानीय आयोजकों ने कहा कि गांधीजी का केवल पांच मिनट ही इस कार्यक्रम के लिए मिल पाएगा। दुर्गाबाई उतने से ही संतुष्ट थीं।

स्कूल का मैदान रेलवे स्टेशन और टाउन हॉल के बीच में ही पड़ता था इसलिए गांधीजी पहले महिलाओं की इस विशेष सभा में ही पहुंचे। वहाँ एक हजार से अधिक महिलाएं जुटी थीं। जैसे ही गांधीजी ने बोलना शुरू किया, वे बोलते चले गए। आधा घंटा बीत गया लेकिन गांधी लगातार बोलते जा रहे थे और महिलाएं अपने आभूषण, कंगन, गले के कीमती हार आदि उनके कदमों में रखती जा रही थीं। इस तरह लगभग पच्चीस हजार रुपयों की थैली इकट्ठा हो चुकी थी। गांधीजी ने महिलाओं की मुक्ति पर जोर देते हुए कहा कि देवदासी और बुर्का जैसी कुप्रथाओं को जाना ही होगा। गांधीजी का यह पूरा भाषण हिंदुस्तानी में था और इसका तेलुगु में अनुवाद वह 12 वर्षीया लड़की दुर्गाबाई ही कर रही थी ।

इसके बाद जब दुर्गाबाई सबके साथ गांधीजी को स्कूल के दरवाजे तक छोड़ने गईं, तो गांधीजी ने उनसे कहा- ‘दुर्गा, आओ मेरे साथ मेरी कार में बैठो।’ दुर्गा कार की पिछली सीट पर कस्तूरबा के साथ जा बैठीं। बगल में प्रभावती (जयप्रकाश नारायण की पत्नी) भी बैठी थीं। जब गांधी जी टाउन हॉल में पहुंचे और वहां सभा को संबोधित करना शुरू किया तो वहां के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी कोंडा वेंकटाप्पैय्या ने गांधीजी के हिंदुस्तानी में दिए जा रहे भाषण को तेलुगु में अनुवाद करना शुरू किया। गांधीजी ने बीच में ही उन्हें रोककर कहा- ‘वेंकटाप्पैय्या, अनुवाद दुर्गा को करने दो। आज सुबह उसने मेरे भाषण का क्या खूब अनुवाद किया है।’ इसके बाद से गांधीजी ने जब भी आंध्र का दौरा किया तो दुर्गा ने ही उनके अनुवादक का काम किया।

दुर्गाबाई ने गांधीजी के सामने ही विदेशी कपड़ों की होली जलाई। अपने कीमती आभूषण उन्होंने आजादी के आन्दोलन के लिए गाँधी जी को दान में दे दिए तथा स्वयं को एक स्वयं सेविका के रूप में समर्पित कर दिया। महात्मा गांधी भी इस छोटी सी लडकी के साहस को देखकर दंग रह गये थे।

बाद में जब काकीनाड़ा में  कांग्रेस का अधिवेशन था तो इस छोटी सी लडकी दुर्गाबाई ने जवाहरलाल नेहरु को बिना टिकट प्रदर्शनी में जाने से रोक दिया था। पंडित नेहरु इस लडकी की कर्तव्यनिष्ठा एवं समर्पण से बहुत प्रभावित हुए थे तथा टिकट लेकर ही अंदर गये थे।

बीस वर्ष की आयु में तो दुर्गाबाई के तूफानी दौरों और धुआधार भाषणों की धूम मच गयी थी। उनकी अद्भुत संगठन क्षमता एवं भाषण देने की कला को देखकर लोग चकित रह जाते थे। उनके साहसपूर्ण दृढ़ व्यक्तित्व को देखकर लोग उन्हें “जॉन ऑफ़ ओर्क” के नाम से पुकारते थे।

गाँधी जी के नमक सत्याग्रह के दौरान दुर्गाबाई को कैद कर लिया गया था और उन्हें वेल्लोर जेल भेज दिया गया था जहाँ वे अन्य महिला कैदियों के साथ घुलमिल गईं।  उन्होंने जेल में कैद महिलाओं को देखा तो पाया कि उनमें से कई को यह भी नहीं पता था कि उन्हें किस अपराध के कारण जेल में रखा गया है। उनकी दशा देखकर दुर्गाबाई ने कसम खाई कि वे भारत की महिलाओं को प्रबुद्ध करने के लिए काम करेंगी। सत्याग्रह आंदोलन के दौरान 1930 से 1933 के बीच उन्हें तीन बार गिरफ्तार किया गया था और जेल में रखा गया उन्होंने अपना अंतिम कार्यकाल मदुरै जेल में बिताया जहाँ उन्हें हत्यारों की कोठरी के बगल में रखा गया था। जेल के अनुभव से उन्होंने प्रतिज्ञा की कि वे अपना बाकी जीवन गरीबों, शोषितों और दलितों के लिए जिएंगी।

 जेल से छूटने के बाद दुर्गाबाई ने आगे मैट्रिक से लेकर एम.ए. तक की अपनी पढाई पूरी की। पढ़ाई के लिए भी दुर्गाबाई को महिला होने के चलते एक अजीब तरह की चुनौती का सामना करना पड़ा। राजनीति के जरिए सेवा में रुचि होने की वजह से दुर्गाबाई काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में ही बी.ए. करना चाहती थीं, लेकिन मदन मोहन मालवीय इस विषय को केवल पुरुषों के लिए ही उपयुक्त समझते थे। उन्होंने दुर्गाबाई को बी.एच.यू. में राजनीति विज्ञान से बी.ए. करने की अनुमति नहीं दी। लेकिन दुर्गाबाई हार नहीं मानीं। उन्होंने आंध्र विश्वविद्यालय में दाखिला लेने की सोची। वहां के कुलपति डॉ. सी.आर. रेड्डी एक लंबी बहस के बाद दाखिले पर तो सहमत हो गए, लेकिन नया बहाना पेश कर दिया कि उनके यहां तो महिलाओं के लिए हॉस्टल ही नहीं है।

दुर्गाबाई भला कब हार मानने वाली थीं? उन्होंने अखबार में विज्ञापन दिया कि जो भी लड़कियां हॉस्टल के अभाव में आंध्र विश्वविद्यालय में दाखिला नहीं ले पा रही हैं वे उनसे संपर्क करें। लगभग दस लड़कियों ने उनसे संपर्क किया। इन दस लड़कियों ने मिलकर एक उपयुक्त जगह की तलाश की और खुद ही एक गर्ल्स हॉस्टल की शुरुआत कर दी। फिर इन सबने कुलपति से मिलकर कहा कि उन्हें उनकी पसंद के कोर्सों में दाखिला दिए जाएं। इस तरह दुर्गाबाई ने 1939 में प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त करते हुए बी.ए. (ऑनर्स) पास किया। इस उपलब्धि के बाद उन्हें लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स में पढ़ने के लिए टाटा स्कॉलरशिप मिल गई किन्तु द्वितीय विश्व युद्ध के कारण इंग्लैँड की उनकी यात्रा नहीं हो सकी। इसके बाद उन्होंने मद्रास के लॉ कॉलेज में दाखिला लिया और वकालत की डिग्री हासिल कीं। वे अपने समय की सबसे सफल आपराधिक वकीलों में से एक थीं।

 वकालत की डिग्री लेने के बाद वे अखिल भारतीय महिला परिषद, आंध्र महिला सभा, विश्वविद्यालय महिला संघ, नारी रक्षा समिति, नारी निकेतन आदि महिला संगठनों से जुड़कर महिलाओं के कल्याण के लिए समर्पित भाव से काम करने लगीं।

दुर्गाबाई केवल 14 साल की थीं जब उन्होंने अपने छोटे से घर के एक हिस्से में ही ‘बालिका हिंदी पाठशाला’ चलाना शुरू कर दिया था। काकीनाड़ा कांग्रेस अधिवेशन से पहले वे 400 से अधिक महिला स्वयंसेवकों को हिंदी सिखा चुकी थीं। बाद में किसी सज्जन ने उन्हें एक बड़ा स्थान इसके लिए मुहैया कराया। उनकी पाठशाला में चरखा चलाना और कपड़ा बुनना भी सिखाया जाता था। अपनी इन्ही विशेषताओं के कारण उस समय यह पाठशाला अचानक ही राष्ट्रीय स्तर पर जाना-पहचाना जाने लगा। चित्तरंजन दास, कस्तूरबा गांधी, मौलाना शौकत अली, जमनालाल बजाज और सीएफ एन्ड्रयूज़ जैसे लोग इसे देखने जा चुके थे। जब जमनालाल बजाज ने पूछा कि इस पाठशाला की प्रधानाध्यापक कौन है उन्हें और उन्हें 14 साल की दुर्गाबाई के बारे में बताया तो उन्हें एकबारगी यकीन ही नहीं हुआ। उन्होंने दो अवसरों पर दुर्गाबाई को आर्थिक सहयोग देने की पेशकश भी की, लेकिन दुर्गाबाई ने विनम्रतापूर्वक मना करते हुए कहा कि जब ऐसी जरूरत पड़ेगी, तब वे मांग लेंगी।

लॉ कॉलेज में पढ़ते हुए ही दुर्गाबाई ने मद्रास में ‘आंध्र महिला सभा’ की नींव रखी। महिलाओं की शिक्षा, रोजगारपरक प्रशिक्षण और महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में इस संस्था ने अपनी खास पहचान बनाई और देशभर के कई महत्वपूर्ण व्यक्ति इससे जुड़े जिनमें सरोजिनी नायडू, सुचेता कृपलानी, जयपुर के महाराजा विक्रमदेव वर्मा, मिर्जापुर की महारानी और डॉ. विधानचंद्र रॉय प्रमुख थे। 1946 में मद्रास में ‘आंध्र महिला सभा’ के नए भवन की नींव रखने स्वयं महात्मा गांधी गए थे। उसी साल दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा ने हिंदी के प्रचार-प्रसार में योगदान के लिए महात्मा गांधी के हाथों ही उन्हें स्वर्ण पदक से सम्मानित किया।

आज़ादी के बाद संविधान सभा की गिनी-चुनी महिला सदस्यों में दुर्गाबाई प्रमुख थीं और इसके सभापति के पैनल में वे अकेली महिला थीं। संविधान सभा और बाद में अंतरिम सरकार में होने वाली बहसों में वे बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती थीं। खासकर वंचितों और महिलाओं के अधिकारों और बजटीय प्रावधानों के लिए वे मंत्रियों को परेशान करके रखती थीं। दुर्गाबाई को, सरदार पटेल का भी बहुत स्नेह प्राप्त था।

1953 में जब वे 44 साल की थीं, उन्होंने भूतपूर्व वित्त मंत्री सी.डी. देशमुख से दोबारा शादी की। सी.डी.देशमुख का पूरा नाम चिंतामणि द्वारकानाथ देशमुख था। वे अपने दौर के सबसे मेधावी युवकों में से थे और विश्वविद्यालयों से लेकर आई.सी.एस. तक की परीक्षा में वे टॉपर रहे थे। गोलमेज सम्मेलनों से लेकर अन्य कई महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों का उन्होंने सफलतापूर्वक निर्वहन किया था। आज़ादी के बाद उन्होंने लगातार कई महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों को संभाला। वे भारतीय रिज़र्व बैंक के पहले भारतीय गवर्नर थे। बाद में वे भारत के दूसरे वित्त मंत्री भी बने। योजना आयोग की स्थापना के समय से ही वे इसके सदस्य थे। वे दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष और नेशनल बुक ट्रस्ट के संस्थापक सभापति भी थे। उनका भी पहला विवाह लंदन में ही रोज़ीना नाम की एक ब्रिटिश युवती से हुआ था। रोजीना का 1949 में का देहांत हो गया था।

 दुर्गाबाई और उनके पति सी.डी.देशमुख की जीवन शैली एकदम भिन्न थी। देशमुख जहां अपनी अंग्रेजीदां जीवन-शैली और पहनावे के लिए जाने जाते थे, वहीं दुर्गाबाई एकदम सादा पहनावे और भदेस जीवन शैली के लिए जानी जाती थीं। दुर्गाबाई ने लिखा है कि उन्हें तो फैशनेबल चप्पलें तक पहननी नहीं आती थीं। किन्तु देश और समाज सेवा के काम को दोनो ने मिलकर निष्ठा के साथ पूरा किया।

22 जनवरी, 1953 को दोनों का विवाह हुआ था जिसमें प्रथम गवाह की भूमिका स्वयं प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने निभाई थी। विवाह से ठीक पहले दुर्गाबाई योजना आयोग से अपना इस्तीफा लेकर नेहरू के पास गई थीं और उन्होंने कहा था कि पति-पत्नी का एक साथ योजना आयोग में रहना ठीक नहीं होगा। इस पर नेहरू ने इस्तीफा नामंजूर करते हुए कहा था कि योजना आयोग में उनकी नियुक्ति देशमुख ने नहीं, उन्होंने की है।

दुर्गाबाई के पूर्व पति सुब्बा राव ने मायम्मा नाम की एक लड़की से विवाह किया था। उल्लेखनीय है कि 1941 में जब सुब्बा राव का देहांत हो गया और मायम्मा के साथ उसके ससुराल वाले अत्याचार करने लगे तो दुर्गाबाई ने उन्हें अपने पास बुला लिया और अपने द्वारा स्थापित ‘आंध्र महिला सभा’ में प्रशिक्षण दिलाकर स्वावलंबी बनाया और बाद में वे हैदराबाद के रीजनल हैंडीक्राफ्ट्स इंस्टीट्यूट में शिक्षिका बन गईं।

अपने विवाह के समय दुर्गाबाई योजना आयोग की सदस्य थीँ। वे बाद में संविधान सभा की भी सदस्य बनीं और उन्होंने जवाहरलाल `नेहरू, गोपालस्वामी आयंगर और बी.एन.राव जैसे नेताओं के साथ मिलकर काम किया। वह संविधान सभा में एक बहुत सक्रिय महिला थीं और अम्बेडकर ने एक बार उनके बारे में कहा था कि “यहाँ एक महिला उनके बोनट में मधुमक्खी है”।

दुर्गाबाई ने अपने पति के साथ मिलकर नई दिल्ली में इंडिया इंटरनेशनल सेंटर और काउंसिल ऑफ सोशल डेवलपमेंट एंड पॉपुलेशन काउंसिल ऑफ इंडिया की कल्पना की।

भारत में लड़कियों और महिलाओं की शिक्षा के लिए 1958 में गठित ‘नेशनल काउंसिल फॉर वीमेंस एजुकेशन’ की पहली अध्यक्ष दुर्गाबाई देशमुख को ही बनाया गया था। भारतीय न्यायपालिका में ‘फैमिली कोर्ट’ की व्यवस्था लाने का श्रेय भी उन्हीं को दिया जाता है। सामाजिक शोध के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान देने वाली नई दिल्ली स्थित संस्था ‘काउंसिल फॉर सोशल डेवलपमेंट’ की स्थापना भी उन्होंने ही की थी।

 हिंदी के प्रति यदि किसी भी दक्षिण भारतीय नेता में सबसे अधिक अनुराग था तो वह निस्संदेह दुर्गाबाई ही थीं। उन्होंने संविधान सभा में हिंदुस्तानी को राष्ट्र भाषा बनाने का प्रस्ताव दिया था और उसके लिए अंत तक लड़ती रहीं। इस दृष्टि से वे गाँधी जी के विचारों के साथ थीं और यह देश का दुर्भाग्य था कि राष्ट्रभाषा के संबंध में संविधान सभा हिन्दी और हिन्दुस्तानी के स्वरूप को लेकर दो हिस्सों में विभक्त हो गया था और बहुमत हिन्दी के पक्ष में था। इसके पीछे बहुत से ऐतिहासिक कारण थे। देश का बंटवारा, उर्दू को पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा घोषित करना, गाँधी जी की नृशंस हत्या आदि इन्ही कारणों में थे। यदि हिन्दी की जगह हिन्दुस्तानी को भारत की राष्ट्रभाषा स्वीकार कर लिया गया होता तो भारत में हिन्दी और उर्दू का झगड़ा लगभग खत्म हो गया होता क्योंकि सभी बड़े उर्दू के समर्थक उस समय गाँधी जी की हिन्दुस्तानी के साथ खड़े थे। मेरी दृष्टि में संविधान सभा द्वारा हिन्दुस्तानी की जगह हिन्दी के पक्ष में लिया गया निर्णय देश की भाषा के भविष्य को लेकर हितकर साबित नहीं हुआ और भाषा का विवाद आज तक बना हुआ है।

Dr. Durgabai greeting Major David Ronald Bridges, Director (Far East) American Foundation for Overseas Blind

दुर्गाबाई देशमुख वह नारी-मुक्तिवादी महिला हैं, जिन्होंने बतौर अस्थायी सांसद संविधान सभा में कम-से-कम 750 संशोधन प्रस्ताव रखे। वे एक ऐसी प्रशासक थीं जिन्होंने करोड़ों रुपये की स्थायी निधि वाली कम-से-कम आधा दर्जन संस्थाओं का गठन किया। वे ऐसी देशभक्त थीं जो चौदह वर्ष की उम्र में ही जेल चली गईं। दुर्गाबाई ने प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं के संगठित प्रयास के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन लाने की कोशिश की। उन्होंने जनसंख्या नीति तैयार करने के लिए विस्तृत प्रतिवेदन तैयार किया और राष्ट्र की प्रगति में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए मज़बूत आधारशिला की नींव रखी। उन्होंने 1964 से 1974  तक ब्लाइंड रिलीफ एसोसिएशन,दिल्ली की अध्यक्षता संभाली और  दृष्टिबाधितों को समर्पित संस्था की सेवाओं को नयी ऊँचाइओं तक ले गयीं।     

Dr. Durgabai Deshmukh (center), Dr. Lal Advani (to her left), Justice Vyas Dev Misra (to her right), (followed by) Dr. C. D. Deshmukh, Advisor

दिल्ली में पिंक लाइन के साउथ कैम्पस मेट्रों स्टेशन का नाम दुर्गाबाई देशमुख रखा गया है। उसके समीप स्थित श्री वेंकटेश्वर कॉलेज की स्थापना में भी दुर्गाबाई की महत्वपूर्ण भूमिका है। 71 साल की उम्र में एक लम्बी बीमारी के बाद 9 मई 1981 को हैदराबाद में इस महान महिला का निधन हो गया। आंध्रप्रदेश के गांवों में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए उन्हें नेहरू साक्षरता पुरस्कार तथा भारत सरकार की ओर से पद्म विभूषण सहित अन्य अनेक पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया।

जन्मदिन के अवसर पर हम समाज और राष्ट्रभाषा हिन्दी के लिए किए गए दुर्गाबाई देशमुख के अवदान का स्मरण करते हैं और उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।

      ( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर एवं हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं )

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